आध्यात्मिक विचार / 01
विविध रूपों में गुरुदेव |
AV अर्थात् आध्यात्मिक विचार में क्या है?
मनुष्य शरीर का महत्व
प्रभु प्रेमियों ! महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा-सागर प्रवचन नंबर 3
में है--
"5. राजा श्वेत ब्रह्मलोक गए । उन्होंने दान नहीं किया था , फलस्वरूप उनको ब्रह्मलोक में भूख-प्यास सताने लगी । तब उन्होंने ब्रह्माजी को कहा । ब्रह्माजी ने कहा - ' यहाँ खाने का सामान है ही नहीं । आपने कभी दान नहीं किया , उसका ही फल है कि यहाँ आपको भूख - प्यास सता रही है । इसलिए आप अमुक सरोवर में जाएँ , वहाँ आपका मृत शरीर सुरक्षित है , उसी का भोजन करें । ' राजा श्वेत ने पूछा - ' महाराज ! यह भोग मुझे कबतक भोगना पड़ेगा ? ' ब्रह्माजी ने कहा - ' जब आपको अगस्त्य मुनि के दर्शन होंगे और उनका आशीर्वाद आपको मिलेगा , तो आप इस कष्ट मुक्त हो जाएंगे ।
राजा श्वेत लाचारी नितप्रति उक्त सरोवर जाते और अपने मृत शरीर का मांस खाकर भूख बुझाते । संयोगवश वहाँ अगस्त्य मुनि पहुँचे । उन्होंने देखा कि दिव्य शरीर है , लेकिन मृतशरीर का मांस खा रहे हैं तो उनसे पूछा - ' आप कौन हैं ? ' राजा श्वेत ने अपना परिचय दिया और आशीर्वाद मांगा , तब वे उस भोग से मुक्त हुए ।
6. ब्रह्मलोक जाकर भी भूख - प्यास सताती है । इसीलिए कहा - 'स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई ।" वहाँ भी जबतक पुण्य है , तभी तक रहो , फिर मृत्युलोक आओ । इससे यह जाना गया कि जैसे विषय यहाँ है , वैसे ही वहाँ भी । यह विशेष बात है । इसी का विचार कीजिए , नित्यानित्य विचारिए । वहाँ पर क्या सुख ? इन्द्रियगम्य पदार्थ का ग्रहण करना । जो इन्द्रियों के ज्ञान से ऊपर है , वह है ईश्वर - ज्ञान । चाहे भीतर की या बाहर की इन्द्रिय से जो आप जानते हैं , सो माया है ।"
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा-सागर प्रवचन नंबर 2 के पाराग्राफ नंबर 8 में कहते हैं-- " 8. संतमत में चलते - चलते ईश्वर को प्राप्त कर लेंगे , मोक्ष प्राप्त होगा और आवागमन से मुक्त हो जाएंगे । इस सत्संग में घर छोड़ने के लिए नहीं कहा जाता । कमाई करके खाओ । " पुनः इसी प्रवचन के पाराग्राफ नंबर 13 में कहते हैं--
13. बाबा साहब ( बाबा देवी साहब ) ने मुझसे पूछा था - तुलसी सिस्टम में रहना चाहते हो या स्वावलंबन में ? मैंने कहा - तुलसी सिस्टम में । जिसे सुनकर सब हँस पड़े । बल्कि एक सत्संगी ने तो मुरादाबाद में ऐसा कहा कि माँगकर लाओगे तो फेंक दूंगा ।
" 9. पवित्र बर्तन में सत्य अँटता है । हमारा अंत : करण शुद्ध होना चाहिए । इसके लिए संयम तथा परहेज करें । अपने को काम क्रोध से बचाकर रखें । बाहर में पाप कर्म नहीं करें । जिस कर्म को करने से अधोगति हो , उसे पाप कहते हैं । पाप - झूठ , चोरी , नशा , हिंसा और व्यभिचार नहीं करें , तब ईश्वर की ओर जाएंगे । इस पर संशय उठेगा कि क्या यहाँ ईश्वर नहीं है ? इसका उत्तर गो ० तुलसीदासजी ने लिखा है-
यहाँ हम नहीं पहचानते हैं , इसलिए हम जहाँ जाकर पहचानेंगे , वहाँ जाएँगे । प्रत्यक्ष वहाँ पाएँगे , जहाँ जाएँगे । उसको प्राप्त करने के लिए अभ्यास करना तथा परहेज करना ; इतनी बातों को जानें । इससे विशेष जानें तो और अच्छा । यह बहुत दृढ़ है कि कोई बिना संयम किए प्राप्त करना चाहे तो ' भूमि पड़ा चह छुवन आकाशा ' वाली बात है । संयमी होने पर संसार में भी सुखी रहता है । वह फजूल खर्च नहीं करता है । उसके पास धन भी जमा हो जाता है । संयमी आदमी बहुत रोग में नहीं पड़ते । धन एकत्रित होने के कारण और पापविहीन होने के कारण लोगों की नजर में वे श्रेष्ठ देखने में आते हैं तथा अंत में परमात्मा को प्राप्त कर लेते हैं । पुरुष को स्त्री का और स्त्री को पुरुष का संग करना पड़ता है । इसके लिए वैवाहिक विधान है । विवाह करने से व्यभिचार नहीं होगा । शास्त्र के नियम छोड़कर अथवा विवाह नहीं होने पर जो संग है , वह व्यभिचार है ।
गुरु महाराज |
11. छुतिया= छू जानेवाली चीज । लोग कहते हैं बिना हिंसा किए कैसे रह सकते हैं ? एक हिंसा वार्य तथा दूसरा अनिवार्य होता है । वार्य से बच सकते हैं , किंतु अनिवार्य से नहीं बच सकते हैं । शरीर खुजलाने पर भी शरीर के कीड़े मरते हैं । जल पीने , हवा लेने में भी हिंसा है । इसको रोकने की कोई विधि नहीं है । यह अनिवार्य हिंसा है । खेती करने , घर बुहारने , आग जलाने आदि में भी हिंसा है , किंतु अनिवार्य है । इसका प्रायश्चित अतिथि - सत्कार और परोपकार से करो । राजा के लिए युद्ध अनिवार्य है । गृहस्थ के लिए घर बनाना , खेती करना अनिवार्य हिंसा है । जान - बुझकर स्वार्थ के लिए जो हिंसा होती है , वह वार्य हिंसा होती है , इसे त्यागना चाहिए । मांस - मछली भी छोड़ो , खाओ मत । मनुस्मृति में आठ आदमी को पाप लिखा है । भूपेन्द्रनाथ सान्याल ने कहा है
न त्वं नाहं नायं लोकस्तदपि किमर्थ क्रियते शोकः ।।"
12. हमारे देह जो परमाणु है जलचर , नभचर आदि में जो परमाणु है एक नहीं । हमलोगों के शरीर में मानुषिक परमाणु है तथा उनमें पाशविक परमाणु है। मनुष्य शरीर में पशु शरीर का परमाणु रखना उचित नहीं । मानसिक हिंसा भी छोड़ो । ईश्वर पर विश्वास करो , उसकी प्राप्ति अपने अंदर में होगी । तब बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई । ' ऐसा ध्यानाभ्यास से होगा ।
सत्संग करो , ध्यानाभ्यास करो ; यह अंतर का सत्संग है और गुरु की सेवा करो ।
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