ध्यानाभ्यास संबंधित क्रमानुसार परिचय
प्रभु प्रेमियों ! ईश्वर प्राप्ति का एकमात्र उपाय है ध्यानाभ्यास करना। ध्यानाभ्यास करने के लिए कई बातों का जानकारी होना आवश्यक है। इन बातों के जानकारी के अभाव में साधक कई तरह के अवांछित कार्य कर जातें हैं। जो उनकी उन्नति में बहुत बड़ा ड़ोड़ा के समान है। अवनति का कारण है। सत्संग ध्यान के क्रमानुसार परिचय के ध्यान चैप्टर में हमलोग ध्यानाभ्यास से संबंधित सभी बातों की जानकारी स्टेप वाय स्टेप प्राप्त करेंगे।
|
ध्यान अभ्यास करते सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस |
ध्यानाभ्यास से संबंधित आवश्यक बातें-
प्रभु प्रेमियों ! ध्यानाभ्यास में निर्विघ्न उन्नति के लिए हमें जिन प्रमुख बातों की जानकारी होनी जरूरी है। उन बातों की सूची निचे दी जा रही है। इन बिषयों पर हमलोग एक-एक करके कर्मानुसार परिचय प्राप्त करेंगे।
1. ध्यानाभ्यास कैसे करें?
2. ध्यानाभ्यास करने की जानकारी कहाँ से प्राप्त करें?
3. ध्यानाभ्यास करते समय किन बातों की जानकारी जरूरी है?
4. ध्यान में होने वाले विध्न बाधा क्या है?
5. ध्यानाभ्यास करने का लाभ क्या है?
6. ध्यानाभ्यास करने का हानि क्या है?
और जो भी कोई बिषय जो होना जरूरी है उसकी जानकारी होने पर उसकी सूची में नाम बाद में जोडा जाएगा।
प्रभु प्रेमियों ! उपरोक्त प्रश्न नंबर 1 ध्यानाभ्यास कैसे करें? और प्रश्न नंबर 2. ध्यानाभ्यास करने की जानकारी कहाँ से प्राप्त करें? का सही और सटीक उत्तर आपको हमारा "
मोक्षपर्यंत ध्यानाभ्यास कार्यक्रम की नियमावली" का पाठ करके मिल जायगा । मोक्षपर्यंत ध्यानाभ्यास कार्यक्रम की नियमावली का पाठ करने के लिए
यहां हम ध्यान अभ्यास करते समय किन बातों की जानकारी जरूरी है ? इसका उत्तर देने के लिए निम्नलिखित बातें लिख रहे हैं--
संत दादू दयाल जी महाराज के वचन में ध्यानाभ्यास
प्रभु प्रेमियों ! महर्षि मेँहीँ सत्संग- सुधा-सागर के प्रवचन नंबर एक में संत सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंस जी महाराज के वचन है- "8. शरीर , इन्द्रियों और मायिक जड़ - आवरण से चैतन्य आत्मा को अलग कर परमात्मा को पाना केवल ध्यान - साधना से ही हो सकता है । इड़ा अर्थात् बायीं ओर की धारा में तामसी वृत्ति रहती है । पिंगला अर्थात् दायीं ओर की धारा में राजसी वृत्ति रहती है और सुषुम्ना अर्थात् मध्य की धारा में सात्त्विकी वृत्ति रहती है । ध्यान - साधना सुषुम्ना में करने की विधि है ।
गुरु महाराज से जैसा सुना , आपलोगों को वैसा सुना दिया । वैज्ञानिक लोग ऑक्सीजन और हाइड्रोजन - दो वाष्पों द्वारा पानी बनाकर दिखला देते हैं । वैसे ही ध्यान अभ्यास के प्रयोग द्वारा परमात्मा की प्रत्यक्षता होती है ; परन्तु यह आधिभौतिक वैज्ञानिक का बाहरी प्रयोग नहीं है । वह प्रयोग अपने अन्दर में करने का है । ध्यान योग का साधक संशय में नहीं रहता है । वह ध्यानाभ्यास के प्रयोग से जो कुछ पाता है , उसको सत्य मानता है और त्रुटि - विहीन ध्यान - अभ्यास के प्रयोग में जो नहीं पाया जाता है , उसको असत्य मानता है । उसको संशय कैसा ?
9. अब ध्यान - अभ्यास के विषय पर कुछ प्रकाश पाने के लिए सन्त दादू दयालजी महाराज के वचन सुनिये-
सब काहू को होत है , तन मन पसरै जाइ ।
ऐसा कोई एक है , उलटा माहिं समाइ ॥१ ॥
क्यों करि उल्टा आणिये , पसरि गया मन फेरि ।
दादू डोरी सहज की , यौं आणे घेरि घेरि ॥२ ॥
साध सबद सौं मिलि रहै, मन राखै बिलमाइ ।
साध सबद बिन क्यों रहै , तबहीं बीखरि जाइ ॥३ ॥
तन में मन आवै नहीं , निसदिन बाहरि जाइ ।
दादू मेरा जिव दुखी , रहै नहीं ल्यौ लाइ ॥४ ॥
कोटि जतन करि करि मुए, यहुमन दह दिसि जाइ ।
राम नाम रोक्या रहै , नाहीं आन उपाइ ॥५ ॥
मन ही सन्मुख नूर है , मन ही सन्मुख तेज ।
मन ही सन्मुख जोति है , मन ही सन्मुख सेज ॥६ ॥
मन ही सौं मन थिर भया, मनहीं सौं मन लाइ ।
मन ही सौ मिली रह्या , दादू अनत न जाइ ॥७ ॥
सबर्दै बन्ध्या सब रहै , सबर्दै सबही जाइ ।
सबर्दै ही सब ऊपजै , सबर्दै सबै समाइ ॥८ ॥
सबर्दै ही सूषिम भया , सबर्दै सहज समान।
सबर्दै ही निर्गुण मिलै , सबर्दै निर्मल ज्ञान ॥९ ॥
एक सबद कुछ किया , ऐसा समरथ सोइ ।
आगे पीछे तौ करै , जे बलहीणा होइ ॥१० ॥
यन्त्र बजाया साजि करि , कारीगर करतार ।
पंचों कारज नाद है , दादू बोलणहार ॥११ ॥
पंच ऊपना सबद थैं , सबद पंच सौ होई ।
साई मेरे सब किया , बूझै बिरला कोइ ॥१२ ॥
सबद जरै सो मिली रहै , एकै रस पूरा ।
काइर भाजे जीव ले , पग माँडै सूरा ॥१३ ॥
दादूदयालजी कहते हैं कि सर्वसाधारण का मन शरीर में पसरा हुआ रहता है ; परन्तु ऐसा कोई बिरला है , जिसका मन उलटकर ( बहिर्मुख से ) अन्तर्मुख होकर अन्दर में समाता है । ( मन का स्थान तो शरीर के अन्दर है ही , फिर अन्दर में समाने का तात्पर्य यह कि जाग्रत् , स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाओं में जिस - जिस स्थान पर मन रहता है , उन तीनों स्थानों से विशेष अन्तर में मन प्रवेश कर जाय । ये तीनों स्थान शरीर के अन्दर के स्थूल तल पर ही हैं । इन तीनों से छूटकर मन सूक्ष्म तल पर आरूढ़ हो , मन के अन्दर समाने का भाव यही है ) ॥१ ॥ मन को किस तरह उलटाकर ( अंदर में ) लावें ? यह फिर पसर गया , हे दादू ! संग - संग उत्पन्न होनेवाली स्वाभाविक डोरी ( धारा ) पकड़ और मन को घेर - घेरकर अन्दर में ला ( सृष्टि - निर्माण के आदि में कम्प अवश्य होता है और कम्प का सहचर शब्द अनिवार्य रूप से होता है । स्थूल , सूक्ष्म , कारण , महाकारण और कैवल्य ( जड़ - विहीन चेतन ) , स्थूल , सूक्ष्म और सूक्ष्मातिसूक्ष्म भेदों से सृष्टि के ये पाँच मण्डल जानने में आते हैं । इन सबके केन्द्रों एवं उनसे उत्थित कम्पों के सहित शब्द के उदय से ही सम्पूर्ण सृष्टि का विकास तथा पूर्णतया निर्माण हुआ है । कथित केन्द्रीय शब्द को ही ' सहज डोरी ' कहा गया है । अपने केन्द्र में आकृष्ट करने का गुण शब्द में है , इसलिए इस शब्द - रूप सहज डोरी को ग्रहण करके मन बहिर्मुख से अन्तर्मुख खिंचकर रहेगा ) ।।२ ।। साधु शब्द से मिलकर रहे और मन को ठहराकर रहे । साधु शब्द के बिना क्यों रहता है तभी तो ( शब्द - विहीन रहते हुए साधु का मन ) बिखर जाता है ।।३ ।। मन ( उलटकर ) शरीर में नहीं आता है , दिन - रात बाहर - बाहर जाता है । ( इसलिए ) दादूदयालजी कहते हैं कि मेरा मन दुःखी है ; क्योंकि साधन में मन लगकर नहीं रहता है । ।।४ ।। लोग मन रोकने के करोड़ों उपाय करके मर जाते हैं , परन्तु मन रुकता नहीं , दसो दिशाओं में जाता रहता है , यह रामनाम ( रामनाम के ग्रहण ) से रुका रहता है । दूसरा उपाय नहीं है ।। ५ ।। ( यहाँ पर राम - नाम से तात्पर्य सर्वव्यापिनी अनाहत ध्वनि से है । इस ध्वनि को नाम इसलिए कहते हैं कि इसके द्वारा चैतन्य आत्मा को आदि मूलतत्त्व अक्षर पुरुषोत्तम परमात्मा की पहचान हो जाती है-
नीके राम कहतु है वपुरा ।
घर माहै घर निर्मल राखै , पंचौं धोवै काया कपरा ।। टेक ।।
सहज समरपण सुमिरण सेवा , तिरवेणी तट संयम सपरा ।
सुन्दरि सन्मुख जागण लागी , तह मोहन मेरा मन पकरा ॥
विन रसना मोहन गुण गावै , नाना वाणी अनभै अपरा ।
दादू अनहद ऐसें कहिये , भगति तत यहु मारग सकरा ॥
सन्त दादूदयालजी के इस शब्द से विदित है कि रामनाम से उनका तात्पर्य अनाहत नाद से है । मन के सन्मुख ही प्रकाश है और आराम करने का स्थान - बिछावन है । ( जाग्रत् अवस्था में आज्ञाचक्र के केन्द्र में मन की बैठक है । उसके सम्मुख वृत्ति के सिमटाव और स्थिरता से प्रकाश और चैन का स्थान प्रत्यक्ष होता है ) ।६ ।।
10. मन से मन को लगाकर मन स्थिर हो गया , मन से मन मिलकर रहा , तब अन्यत्र नहीं जाता है । ( मन के केन्द्रीय रूप को निज मन - आत्ममुखी मन कहते हैं और उसकी किरणें वा धारा जो समस्त शरीर में फैली हुई है , उसे तन - मन या शरीर - मुखी मन कहते हैं । तन - मन को निज मन में समेटकर केन्द्रित करने को मन से मन को मिलाकर रखना है ) ।। ७ ।।
वर्णन हो चुका है कि शब्द से ही सारे विश्व का तथा उसके पंच मण्डलों का निर्माण और विकास हुआ है , इसीलिए शब्द के विषय में उपर्युक्त रीति से कहा गया है ।
11. ध्यान - साधना में ज्योति और शब्द के ग्रहण की विशेषता , मुख्यता और विशेष आग्रह है । युक्ति जानकर सब लोगों को इस ध्यान का अभ्यास करना चाहिये ; क्योंकि इसी साधना के द्वारा निर्वाणपद पर पहुँचना और अपना परम कल्याण बना लेना पूर्ण सम्भव है ।"
13. साधना करते - करते करने की शक्ति प्राप्त होगी , तब मालूम होगा कि पहले से कुछ बदल गए । अन्यथा , हनोज रोज अब्बल - अब भी पहला ही दिन है । बाबा साहब से एक सत्संगी ने कहा था जिसका नाम रंगलाल था ।
पानी बहुत दूर में है । मानो हजार हाथ नीचे है । हजार हाथ की रस्सी लगेगी , पानी खींचने के लिए बाल्टी भी चाहिए । रस्सी कुएँ में गिराकर केवल छोर पकड़े रहते हैं फिर पानी निकालकर पीते हैं । अगर छोर छूट जाय तो पानी नहीं पी सकते हैं । उसी प्रकार भजन तथा आशा की छोर पकड़े रहो , कल्याण होगा । आशा कभी मत छोड़ो ।
आशा से मत डोल रे तोको पीव मिलेंगे ।∆
*हर समय सिमरन*
एक बार पूज्य कबीर साहिब जी से किसी ने पूछा आप दिन भर कपड़ा बुनते रहते हैं तो मालिक सतगुरु का सिमरन कब करते हैं...?
कबीर साहिब जी उस व्यक्ति को लेकर अपनी झोपड़ी से बाहर आ गए और बोले-- 'यहां खड़े रहो। तुम्हारे सवाल का जवाब सीधे न देकर, मैं उसे थोड़ी देर में दिखाता हूं कबीर साहिब जी ने दिखाया कि एक औरत पानी की गागर सिर पर रखकर लौट रही थी। उसके चेहरे पर प्रसन्नता और चाल में रफ्तार थी। उमंग से भरी हुई वह नाचती हुई-सी चली जा रही थी। गागर को उसने पकड़ नहीं रखा था, फिर भी वह पूरी तरह संभली हुई थी।
कबीर जी ने कहा उस औरत को देखो। वह जरूर कोई गीत गुनगुना रही है। शायद कोई प्रियजन घर आया होगा। वह प्यासा होगा उसके लिए वह पानी लेकर जा रही है। मैं तुमसे जानना चाहता हूं कि उसे गागर की याद होगी या नहीं कबीर जी की बात सुनकर उस व्यक्ति ने जवाब दिया,'उसे गागर की याद नहीं होती तो महाराज अब तक तो उसकी गागर नीचे ही गिर चुकी होती।
कबीर जी-- सही बोले जी, 'यह साधारण सी औरत सिर पर गागर रखकर रास्ता पार करती है। मजे से गीत गाती है, फिर भी गागर का ख्याल उसके मन में बराबर बना हुआ है। और तुम मुझे इससे भी गया गुजरा समझते हो कि मैं कपड़ा बुनता हूं और परमात्मा का स्मरण करने के लिए मुझे अलग से वक्त की जरूरत है। मेरी आत्मा हमेशा उसी में लगी रहती है। कपड़ा बुनने के काम में शरीर लगा रहता है । भाई ! मेरी आत्मा हर वक़्त मालिक के चरणों में लीन रहती है। आत्मा हर समय प्रभु के चिंतन में डूबी रहती है। इसलिए ये हाथ भी आनंदमय होकर कपड़ा बुनते रहते हैं और इन कपड़ो को पहनने वाला भी सतगुरु के गुण गाता है।
सुमरण की सुध यो करो ज्यों गागर पनिहार।
होले-होले सुरत में कहैं कबीर विचार॥
इस प्रकार का सिमरन करते हुए भी गुरु आज्ञा के अनुसार त्रिकाल संध्या के समय विशेष रुप से समय निकालकर अवश्य सिमरन ध्यान करना चाहिए नहीं, तो गुरु आज्ञा का उल्लंघन करने का पाप लगेगा और सिमरन सब काम को छोड़कर भी करना जरूरी है। सब काम को करते हुए भी सिमरन करना चाहिए और सब काम को छोड़कर भी सिमरन करना अत्यंत जरूरी है।
शेष भाग पढ़ने के लिए 👉 यहाँ दबाये।
---×---
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के क्रमानुसार परिचय के अन्तर्गत ध्यान 01 के इस पोस्ट का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि ध्यान कैसे करें, ध्यानाभ्यास कैसे करें? ध्यान के नियम, ध्यान, ध्यान क्या है? ध्यान तथा इसकी कार्यप्रणाली, ध्यान तथा इसाकी पद्धतिया, ध्यान की शक्तियाँ, ध्यान के चमत्कारिक अनुभव, ध्यान की परिभाषा, ध्यान के खतरे, ध्यान करने के नुकसान, ध्यान में डर क्यों लगता है? इत्यादि बातें। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का संका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी।
सत्संग ध्यान स्टोर (Satsang Dhyan Store)
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान से संबंधित हर प्रकार की सामग्री के लिए आप हमारे "सत्संग ध्यान स्टोर (Satsang Dhyan Store)" से ऑनलाइन मंगा सकते हैं । इसके लिए हमारे स्टोर पर उपलब्ध सामग्रियों-सूची देखने के लिए 👉 यहां दबाएं।
कोई टिप्पणी नहीं:
कृपया वही लोग टिप्पणी करें जिन्हे कुछ जानने की इच्छा हो । क्योंकि यहां मोक्ष पर्यंत ध्यानाभ्यास का कार्यक्रम चलता है। उससे जो अनुभव होता है, उन्हीं चीजों को आप लोगों को शेयर किया जाता है ।फालतू सवाल के जवाब में समय बर्बाद होगा। इसका ध्यान रखें।