भारतीय अध्यात्मिक विद्या
प्रभु प्रेमियों! सत्संग ध्यान के क्रमानुसार परिचय में आपका स्वागत है । आज हम सीखेंगे- भारत की अध्यात्मिक ज्ञान के बारे में। इसमें हमलोग जायेगे_ शांति कहाँ मिलती है? आध्यात्मिक विद्या क्या है? अध्यात्म का मूल उद्देश्य क्या है? आध्यात्मिक ज्ञान कैसे सीखें? भारत की अध्यात्मिक विद्या क्या है? इन बातों को समझने के पहले देश-विदेश में अध्यात्म ज्ञान के प्रचार करने वाले महापुरुषों के दर्शन करें-
| अध्यात्मिक ज्ञान के धनी महात्मा |
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सांसारिक वस्तुओं में पूरी संतुष्टि नहीं
प्रभु प्रेमियों ! अध्यात्म विद्या के बारे में कहा जाता है कि "आत्मा और परमात्मा से संबंधित शाश्वत ज्ञान का अनुगमन करना ही अध्यात्म विद्या है। " अध्यात्मिक ज्ञान के बारे में सद्गुरु महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज कहते हैं-
{ सब लोग दुःखों से छूटने के लिए उत्सुक हैं; वैसे ही वे सुख की प्राप्ति के लिए भी उत्सुक हैं। लोग जितना सुख पाते हैं , उससे वे संतुष्ट नहीं होते । साधारणतया लोग जो सुख जानते हैं , वह विषय सुख है , जिसे इन्द्रियों के द्वारा भोगते हैं । इन विषय सुखों से कोई संतुष्ट नहीं हुए और न होते हैं । इसके लिए ज्ञानियों ने कहा है कि तुम जो संतोषप्रद नित्य सुख चाहते हो , वह इन्द्रियों के सुख में नहीं है । उसको पाने का रास्ता दूसरा है वह सांसारिक सुख नहीं है , ब्रह्म सुख है । उस ओर चलो , यही उनका आदेश है ।
सूक्ष्ममार्ग का अवलंबन करो । मार्ग वह है- जिसका कहीं पर न ओर है और न कहीं पर छोर है; बीच में कुछ फासला है , जिस पर चला जा सकता है । जो जहाँ बैठा रहता है , वह वहीं से चलता है । शरीर में मन का बैठक या इसका केन्द्रीय रूप जहाँ है , वहीं से चलेगा । जाग्रत अवस्था में नेत्र में वासा है ।
( नेत्रस्थं जागरितं विद्यात्कण्ठे स्वप्नं समाविशेत । सुषुप्तं हृदयस्थं तु तुरीयं मूर्ध्निं संस्थितम् ।। -ब्रह्मोपनिषद्
नैनों माही मन बसै, निकसि जाय नौ ठौर ।
गुरु गम भेद बताइया सब संतन शिरमौर ।। -कबीर साहब
जानिले जानिले सत्तपहचानि ले , सुरत साँची बसै दीददाना । खोलो कपाट यह बाट सहजै मिले , पलक परवीन दिव दृष्टि ताना ।।- दरिया साहब , बिहारी )
(महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 46 ) }
शांति कहाँ मिलती है?
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भारत और अध्यात्मिक विद्या के प्रेरक संत |
{ भारत कहता है, मन को काबू करो, शान्ति आयगी। जाग्रत् में मन काबू में नहीं है, स्वप्न में मन काबू में नहीं है। गहरी नींद में केवल श्वास चलता है और कुछ मालूम नहीं होता। इसमें कुछ शान्ति में तो सोते हैं, लेकिन यह गहरी नींद सदा रहती नहीं। फिर सुपुप्ति से जाग्रत् की अवस्था में आते हैं और शान्ति नहीं पाते हैं। जिनलोगों ने साधन किया है, वे लोग कहते हैं कि तुरीयावस्था में चलो । फिर तुरीयातीतावस्था में चलो। यह काम रेलगाड़ी और हवाई जहाज पर चलने से नहीं होगा। अन्दर-अन्दर चलने से होगा। इसका यत्न गुरु बतायेंगे। गुरु के प्रति श्रद्धा हमारे देश में बहुत है। गुरु में, सच्छास्त्र में विश्वास श्रद्धा है। गुरु के वचन में, माता-पिता के वचन में श्रद्धा होनी चाहिये। इसीलिये कहा- "प्रथम गुरु है माता पिता....।" (
महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 497 ) }
आध्यात्मिक विद्या क्या है?
{ आपलोगों को संसार की वस्तुओं में से कुछ-न-कुछ अवश्य प्राप्त है । किंतु इन वस्तुओं से आप अपने को कैसा समझते हैं , मालूम है । सांसारिक वस्तुओं में से अधिक या कम जो कुछ भी प्राप्त है , इसमें संतुष्टि नहीं आती है । जहाँ संतुष्टि नहीं है , वहाँ सुख - शान्ति नहीं है । यह खोज अवश्य चाहिए कि जिसको पाकर पूरी संतुष्टि हो जाए , वह क्या है ? इसके लिए संसार में कोई खोजे तो संसार के सभी पदार्थ इन्द्रियों के द्वारा जानते हैं । रूप को आँख से , शब्द को कान से आदि ; इन सब पंच विषयों से विशेष कुछ संसार में नहीं है । यदि है भी तो आप कैसे जान सकते हैं? इसलिए
अध्यात्म का मूल उद्देश्य क्या है?
संत महात्मा कहते हैं कि जिसमें पूरी संतुष्टि है , वह पूरी संतुष्टि देनेवाला पदार्थ परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । उस परमात्मा की खोज करो । इसका कारण है कि परमात्मा पूर्ण हैं और इन्द्रियाँ अपूर्ण शक्तिवाली हैं । अपूर्ण शक्तिवाली इन्द्रियों से पूर्ण सुख - शान्ति को कैसे प्राप्त कर सकते हैं । इसलिए पूर्ण परमात्मा को खोजो । वह परमात्मा कहाँ है , स्वरूपतः वह क्या है ? इसका पता लगाओ । मुख्तसर में है कि जो इन्द्रियों से अगोचर है , आत्मगम्य है , वह वही है । वह सर्वत्र है । कहीं से भी खाली नहीं है । बाहर - भीतर एक रस सब में है । ' बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआन बताई । ' ( गुरु नानक साहब )
आध्यात्मिक ज्ञान कैसे सीखें?
इसलिए उसकी खोज करो । जो वस्तु आपके घर में हो और दूसरे के घर में भी हो तो उसे लेने की सुगमता कहाँ होगी ? अपने घर में या दूसरे घर में ? अपने घर की वस्तुओं को लेने में ही सुगम है । दूसरी बात है कि इन्द्रियों से विषयों का बाहर में ज्ञान होता है , किंतु परमात्मा इन्द्रिय - ज्ञान द्वारा जाना नहीं जाता । तब फिर उसे बाहर इन्द्रियों से खोजकर कैसे प्राप्त कर सकते हैं । संत कबीर साहब ने कहा है -
' परमातम गुरु निकट विराजै, जागु जागु मन मेरे । '
परमात्मा अपने अंदर में अत्यंत निकट है । यह शरीर कब गुजर जाएगा , ठिकाना नहीं । भजन करने का अवसर निकल जाता है। पीछे पछतावा होती है । इसलिए इसके छूटने के पहले से ही भजन करो । परमात्मा को ढूढ़ने में विलम्ब मत करो
काल्ह करै सो आज कर , आज करै सो अब ।
पल में परलै होयगा , बहुरि करेगा कब ॥ -संत कबीर साहब
इसलिए जल्दी खोज करनी चाहिए । फिर कहा
जुगन जुगन तोहि सोवत बीते ,
अजहुँ न जाग सबेरे । -संत कबीर साहब
माया मुख जागे सभै , सो सूता कर जान ।
दरिया जागेब्रह्म दिसि , सोजागा परमान ।। -संत दरिया साहब
गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज का कहना है
मोह निशासबसोवनिहारा । देखिअसपन अनेक प्रकारा ।।
भारत की अध्यात्मिक विद्या क्या है?
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संतों की प्राचीन खोज |
जाग्रत , स्वप्न और सुषुप्ति ; ये तीनों अवस्थाएँ सबको प्रतिदिन हुआ करती हैं । यह कैसे होता है ? जागने के समय में एक स्थान में स्वप्न में दूसरे स्थान में , सुषुप्ति में तीसरे स्थान में जीव रहता है । स्थान - भेद से अवस्था - भेद और अवस्था - भेद से ज्ञान - भेद होता है । अभी आप जगे हुए हैं , किंतु साधु - संत इस जगना को भी जगना नहीं कहते हैं । तीन अवस्थाओं से ऊपर तुरीय अवस्था में अपने को ले जाओ तब जगना है । ' तीन अवस्था तजहु भजहु भगवन्त । ' जबतक तुरीय में जीव नहीं जाता है , तबतक जगना नहीं है । केवल विचार में जान लेने से जगना नहीं है, जगना तब होता है , जब चौथी अवस्था में जाओ । इसके लिए गुरु से यत्न जानो । गुरु यत्न बता भी दे और यत्न जाननेवाला अभ्यास नहीं करे तो वहाँ कैसे पहुँच सकता है ? जितने पदार्थों में हमारी आसक्ति होती है , वहाँ - वहाँ हम लसकते हैं । इस लसकाव से अपने को विचार द्वारा छुड़ाओ और अंतर अभ्यास द्वारा उस लसकाव के संबंध को ढीला करो । तुरीय का मैदान भी बहुत लम्बा है । इसमें बढ़ने पर आसक्ति छूटती जाती है । साधु - संत लोग ईश्वर की खोज अपने अंदर करने कहते हैं । गुरु नानकदेव ने भी कहा है
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बाबा नानक |
काहे रे वन खोजन जाई । सरब निवासी सदा अलेपा , तोही संग समाई ॥ पुहुप मधि जिउ बासु बसतु है , मुकुर माहिं जैसे छाई । तैसे ही हरि बसे निरंतरि , घटही खोजहु भाई ॥ बाहरि भीतरि एको जानहु , इहु गुर गिआन बताई । जन नानक बिनु आपा चीनै , मिटै न भ्रम की काई ।
गोस्वामी तुलसीदासजी को भी अपने अन्दर में ईश्वर की प्राप्ति हुई । वे कहते हैं--
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गो. तुलसी दास जी महाराज |
एहितें मैं हरि ज्ञान गँवायो । परिहरि हृदयकमल रघुनाथहिं , बाहर फिरत विकल भय धायो ।। ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद , अति मति हीन मरम नहिं पायो । खोजत गिरि तरु लता भूमि बिल , परम सुगंध कहाँ ते आयो ।। ज्यों सर विमल वारि परिपूरन , ऊपर कछु सेवार तॄन छायो । जारत हियो ताहि तजिहौं सठ , चाहत यहि विधि तृषा बुझायो ।। व्यापित त्रिविध ताप तन दारुण , तापर दुसह दरिद सतायो । अपने धाम नाम सुरतरु तजि , विषय बबूर बाग मन लायो ।। तुम्ह सम ज्ञान निधान मोहि सम , मूढ न आन पुरानन्हि गायो । तुलसिदास प्रभु यह विचारि जिय , कीजै नाथ उचित मन भायो ।। (महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 97 )}
प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के क्रमानुसार परिचय के अन्तर्गत अध्यात्मिक विचार 01 के इस पोस्ट का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि Where can one find peace? What is spiritual knowledge? What is the basic purpose of spirituality? How to learn spiritual knowledge? What is the spiritual knowledge of India? इत्यादि बातें। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का संका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने। इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी।
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