5.07.2024

ध्यान 02 || दृष्टि योग कैसे करें? दृष्टियोग साधना की सूक्ष्म-से-सूक्ष्म बातें How to do Drishti Yoga?

दृष्टियोग साधन कैसे करें? 

     प्रभु प्रेमियों! सत्संग ध्यान के क्रमानुसार परिचय में आपका स्वागत है । आज हम सीखेंगे-दृष्टि योग  कैसे करें? दृष्टियोग साधना से होने वाले लाभ  के बारे में। 

ध्यानाभ्यास करते गुरुदेव
ध्यानाभ्यास करते गुरुदेव

How to do Drishti Yoga? 

      (  नेत्र कहने से तीसरी आँख जाननी चाहिए , जहाँ से इन दोनों आँखों में धारा आती है । जिसे शिवनेत्र कहते हैं , इसे आज्ञाचक्र का केन्द्र भी कहते हैं । आज्ञाचक्र के दो भाग हैं ; एक भाग को अंधकार और दूसरे भाग को प्रकाशमय बतलाया है । आज्ञाचक्र का जो केन्द्र है , वहीं मन की बैठक है , किंतु बाह्य इन्द्रियों से संबंधित रहने के कारण उसका रुख बिल्कुल अंधकार और बाह्य विषयों की ओर है । इसलिए जब पहले वह अपने अंदर में देखता है , तब उसे अंधकार मालूम होता है । इन्द्रियों में जो मानस - धारा है , वह नीचे की ओर है । यदि इसकी धारा इन्द्रियों से हटे तो इन्द्रियाँ सचेष्ट हो नहीं सकेंगी । जो कोई लेटा पड़ा है , उसके दोनों हाथ दो तरफ और पैर तीसरे तरफ है , यदि वह उठना चाहे तो हाथ - पैर समेटकर उठना होगा । उसी प्रकार चेतन की धारा जो संपूर्ण शरीर में फैली हुई है , जबतक केन्द्र में केन्द्रित न हो , तबतक मन और चेतन की ऊर्ध्वगति नहीं हो सकती। चेतनधारा केन्द्र में केन्द्रित हो, तब वह उस मार्ग पर चलेगी । वहाँ स्थूल देह का कोई अंश नहीं है । वह लकीर या मार्ग सूक्ष्म है , जिसपर सुरत चलेगी ।  चेतनमय मानस - धारा इन्द्रियों के घाटों से छूटते ही और केन्द्र में केन्द्रित होते ही मन का रुख नीचे की ओर से ऊपर की ओर उलट जाएगा । रुख फिरते ही उसे प्रकाश मालूम होगा । सूक्ष्म - मार्ग ज्योति - मार्ग है । इसी सूक्ष्म - मार्ग पर चलना है ।

     इस  विषय को यदि कोई सिर्फ पढ़े और सुने , किंतु उस मार्ग पर चलने के लिए नहीं जाने , तो वह लाभ नहीं होगा जो होना चाहिए। सूक्ष्म - मार्ग ज्योति - मार्ग है , किन्तु वह ज्योति भूमण्डल की ज्योति नहीं है , वह ब्रह्मज्योति है । उस पथ पर पहले मन सहित चेतन जाएगा , फिर मन को छोड़कर केवल चेतन जाएगा । इसके वास्ते बाहर - बाहर यत्न करने पर पता नहीं लग सकता । यह यत्न अंदर - अंदर करने का है । अपनी वृत्तियों को समेटकर अंदर कीजिए । इस सिमटाव के लिए शाम्भवी या वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास कीजिए । देखने के किसी विशेष ढंग को शाम्भवी और वैष्णवी मुद्रा कहते हैं । देखने के लिए उपनिषदों में तीन दृष्टियों ( तद्दर्शने तिम्रो मूर्तयः अमापतिपत्पूर्णिमा चेति । निमीलितदर्शनममादृष्टिः अर्धोन्मीलितं प्रतिपत् । सर्वोन्मीलनं पूर्णिमा भवति ।... तल्लक्ष्यं नासाग्रम् । .... तदभ्यासान्मनः स्थैर्यम् । ततोवायु स्थैर्यम् । -मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् , ब्राह्मण २
द्वादशांगुल पर्यन्ते नासाग्रे विमलेऽम्बरे । संविदृशिप्रशाम्यन्त्यांप्राणस्पन्दो निरुध्यते ॥ भूमध्ये तारकालोक शान्तावन्तमुपागते । चेतनैक तने बद्धे प्राणस्पन्दो निरुध्यते । चिरकालं हृदेकान्तव्योमसंवेदनान्मुने । अवासनमनोध्यानात्प्राणस्पन्दा निरुध्यते ॥ -शाण्डिल्योपनिषद् , अध्याय १ ) का वर्णन है ।

    अमावस्या , प्रतिपदा और पूर्णिमा । आँख बंदकर देखना अमादृष्टि है , आधी आँख खोलकर देखना प्रतिपदा है और पूरी आँख खोलकर देखना पूर्णिमा है । उसका लक्ष्य नासाग्र होना चाहिए । प्रतिपदा और पूर्णिमा में आँखों में कष्ट होता है , किन्तु अमावस्या की दृष्टि में कोई कष्ट नहीं होता। दृष्टि - आँख , डीम और पुतली को नहीं कहते , देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं । दृष्टि और मन एक ओर रखते हैं , तो मस्तिष्क में कुछ परिश्रम मालूम होता है । इसलिए संतों ने कहा - जबतक तुमको भार मालूम नहीं हो , तबतक करो , भार मालूम हो तो छोड़ दो । किसी गम्भीर विषय को सोचने से मस्तिष्क पर बल पड़ता है , मस्तिष्क थका - सा मालूम होता है , तब छोड़ दीजिए । रेचक , पूरक और कुम्भक के लिए कुछ कहा नहीं गया केवल दृष्टिसाधन करने को कहा । प्राणायाम करने के लिए नहीं कहा । जो ध्यानाभ्यास करता है , उसको प्राणायाम आप - ही - आप हो जाता है। मन से जब आप चंचल काम करते हैं , तो स्वाँस की गति तीव्र हो जाती है और जब उससे कोई अचंचलता का काम करते हैं , तो स्वास - प्रस्वास की गति धीमी पड़ जाती है ।

    श्रीमद्भगवद्गीता के छठे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बैठने के स्थान और आसनियों के नाम बतलाकर उसपर शरीर को बैठाकर रखने का ढंग बतलाया है । परंतु प्राणायाम के लिए उस सम्पूर्ण अध्याय में नहीं कहा है केवल ध्यानयोग का ही वर्णन किया है । और अंत में चलकर इसी से परमगति की प्राप्ति को निश्चय कर दिया है । ( प्रयत्नायत मानस्तु योगी संशुद्ध किल्विषः । अनेक जन्म संसिद्धस्ततो यान्ति परां गतिम् ।। ॥ – श्रीमद्भगवद्गीता , अध्याय ६/४५ ) 

    बिना प्राणायाम किए हुए भी ध्यानाभ्यास द्वारा श्वाँस की गति रुकती है । इसके लिए दृष्टियोग बहुत आवश्यक है । किंतु दृष्टियोग के पहले कुछ मोटा अभ्यास करना पड़ता है । क्योंकि जो जिस मण्डल में रहता है , वह पहले उसी मण्डल का अवलम्ब ले सकता है । इसीलिए दृष्टियोग के पहले मानस जप और मानस ध्यान की विधि है । श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में भी इसी क्रम से अभ्यास करने का आशय विदित होता है । ( इन्द्रियाणिीन्द्रियार्थेभ्यो मनसाऽऽकृष्य तन्मनः । बुद्धया सारथिना धीरः प्रणयेन्मयि सर्वतः ॥ तत्सर्वव्यापकं चित्तमाकृष्यैकत्र धारयेत् । नान्यानि चिन्तयेद्भूयः सुस्मितं भावयेन्मुखम् ॥ तत्र लब्ध पदं चित्तमाकृष्य व्योम्नि धारयेत् । तच्च त्यक्त्वा मदारोहो न किंचिदपि चिन्तयेत् ॥ )

     इसमें श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धव से पहले संपूर्ण शरीर का , फिर चेहरे का और फिर शून्य में ध्यान करने को कहा । ध्यानाभ्यास के आरंभ में कुछ - न - कुछ स्थूल अवलम्बन लेना ही होगा । परन्तु ऐसा नहीं कि उसी को जीवनभर पकड़े रह जाइए । आर्य संन्यासी श्रेष्ठ श्रीनारायण स्वामी ने चित्र बनाकर बताया है - पहले एक बड़ा गोलाकार , फिर उससे छोटा , फिर उससे भी छोटा एवम् प्रकार से बड़े से छोटा गोलाकार बनाते - बनाते विन्दु के मोताविक चिह्न बनाकर उसपर ध्यान करते जाने को कहा है । यह क्या हुआ ? स्थूल अवलम्ब हुआ । ऐसा जिद्द नहीं होना चाहिए कि जो अवलम्ब एक ले दूसरा भी उसी को ले । कितने ईश्वर के नाम को लिखकर ध्यान करते हैं । मुसलमान फकीरों में भी ऐसी बात है । इसपर ठीक हो जाने से सूक्ष्म ध्यान कीजिए । भागवत की यह बात अच्छी तरह जंचती है - समस्त रूप का ध्यान करके चेहरे का , फिर शून्य में ध्यान । इस प्रकार फैलाव से सिमटाव की ओर आता है । किसी चित्र वा रूप का मूल एक विन्दु है । सबसे सूक्ष्मरूप विन्दु है , इसकी बड़ी तारीफ है । उपनिषद् में ब्रह्मरूप को ' अणोरणीयाम् महतो महीयान् ' कहा है तथा श्रीमद्भगवद्गीता में भी अणोरणीयाम् कहो या विन्दु कहो एक ही बात है । विन्दु मन से नहीं बनाया जा सकता है । देखने के ढंग से देखिए । दृष्टि को जितना समेट सकें , समेटिए । 

कहै कबीर चरण चित राखो , ज्यों सूई में डोरारे । 
                                                               -कबीर साहब

    एक बार आचार्य द्रोण कौरवों तथा पाण्डवों को संग लेकर जंगल की ओर टहलने गए । वृक्ष पर बैठे हुए एक पक्षी की ओर संकेत कर गुरु द्रोण ने प्रत्येक को एक - एक करके निशाना करने को कहा । निशाना करने पर सबसे पूछते जाते थे कि कहो , क्या देख रहे हो ? किसी ने कहा - वृक्ष , उसकी डालियाँ तथा पत्तों के सहित पक्षी को देख रहा हूँ । किसी ने वृक्ष की डालियाँ एवं पत्तियों के सहित पक्षी को देखने की बात कही , किसी ने डाली सहित पक्षी को देखा । अंत में अर्जुन के निशाना करने पर आचार्य ने पूछा - कहो , क्या देख रहे हो ? अर्जुन ने उत्तर दिया - केवल पक्षी देख रहा हूँ । इसमें दृष्टि का कितना सँभाल है ? स्वयं द्रोण ऐसे थे कि सींकी के पेंदे को सींकी से छेदकर कुएँ से गेन्द निकाले थे । द्रोण की दृष्टि बाहर में कितनी सिमटी थी । विन्दु के लिए और भी दृष्टि को समेटना पड़ेगा । बहिर्मुख होकर नहीं देखो , अंतर्मुख होकर देखो ; फैली दृष्टि से नहीं , सिमटी दृष्टि से देखो पेन्सिल की नोंक जहाँ पड़ेगी , वहीं विन्दु होता है ; उसी प्रकार दृष्टि की नोंक जहाँ टिकेगी , वहीं विन्दु उदय होगा । यहीं से सूक्ष्ममार्ग का आरम्भ होता है । कबीर साहब ने कहा - ' मुर्शिद नैनों बीच नबी है । स्याह सुफेद तिलों बिच तारा अविगत अलख रवी है ।। ' पहले काला चिह्न होगा , फिर सफेद हो जाएगा । अंदर सुषुम्ना में सिमटी दृष्टि का अवलोकन दृढ़ रहने से इन्द्रियों की धार सिमटकर उस केन्द्र में केन्द्रित हो जाएगी । इससे ऊर्ध्वगति होगी । जो चीज जितना सूक्ष्म है , उसमें उतना ही अधिक सिमटाव होगा और सिमटाव के अधिकाधिक मान के अनुकूल ही अधिकाधिक उसकी गति उतनी ही ऊर्ध्व होगी इसलिए अंधकार मण्डल में समेटने से उसकी ऊर्ध्वगति होने के कारण प्रकाश में जाएगा । इसका अभ्यास अमादृष्टि से करना आसान है । यही सूक्ष्ममार्ग का अवलम्ब है । दृश्यमण्डल में का यह अवलम्ब है । यह स्थूल ज्योति नहीं , सूक्ष्म ज्योति है । किन्तु यह निर्मायिक नहीं मायिक ही है । किन्तु यह विद्या माया है । दृश्य समाप्त होता है अदृश्य में । जहाँ ज्योति काम नहीं करती , वहाँ दृष्टि भी समाप्त है । जहाँ ज्योति नहीं है , वहाँ शब्द से रास्ता मिलता है । मनुष्य को कौन कहे , पशु भी शब्द सुनकर आता है । अँधेरी रात हो , पुकारिए वह आपके पास पहुँच जाएगा । शब्द अपने उद्गम स्थान पर आकृष्ट करता है । शब्द वह है जो अंधकार और प्रकाश दोनों में भरपूर है ।  फिर इन दोनों के परे भी है और वहाँ ' निःशब्दम् परमं पदम् ' हो जाता है , परमात्मा से मिला देता है। 

बीजाक्षरं परं विन्दु नादं तस्योपरि स्थितम् । 
सशब्दं चाक्षरे क्षीणे निःशब्दं परमं पदम् ॥ -ध्यानविन्दूपनिषद् 

    प्रकाश के शब्द को पकड़ने के लिए संतों ने कहा , यही सूक्ष्ममार्ग है । इसपर अच्छी तरह विचार करना चाहिए । और विचार में जंचे , योग्य हो तो श्रद्धा करनी चाहिए । गुरुवाक्य है , उसपर हमलोगों को तो बड़ा विश्वास है । गुरु महाराज तो कहते थे , जाँचकर देख लो ।   ( महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नं. 46, मुगेंर, दि. २८.२.१९५३  ई०



( अपने शरीर को हमलोग देखते हैं। अपने को आप देखते हैं? यह दिखाई नहीं देता। इसी को देखने का उपदेश सन्तों ने दिया है और कहा है कि बहिर्मुखी नहीं रहकर अन्तमुखी होकर देखो। आँख बन्द करने पर भी बाहर का ख्याल रखोगे तो बहिर्मुखो रहोगे। इसमें अन्तर्मुखी होकर देखा जाता है तो अन्धकार देखा जाता है। अन्धकार में क्या देखोगे ? आँख बन्द कर देखने पर भी मन छिरयाया रहता है, दृष्टि छिरयायी रहती है। इसलिये दृष्टि समेट करके देखो। इसी को दृष्टि साधन कहते हैं। दृष्टियोग समाप्त कहाँ होता है ? दृष्टि को समेट कर देखा जाता है तो देखने का काम शुरू हो जाता है। यही एक दृष्टि हुई। दृष्टि को एकत्र करके देखना यानी दृष्टि को एक करके देखना है। देखने को शक्ति एक पर नहीं रही तो एक का देखना नहीं हुआ। इसलिये दृष्टि को समेट कर एक पर रखो। एक पर रखने से भिन्नता छूट जाती है, तब क्या होता है ? अणुओं से सत्र बनते हैं, सभी छूट जाते हैं। परमाणु बच जाता है। परमाणु यानी सबसे छोटा। इसमें बड़ा बल है। आजकल वैज्ञानिकों ने परमाणुओं को पकड़ा है। उससे बहुत काम करके दिखलाया है। दृष्टि को एक करके देखो - यही दृष्टियोग है। 

     यहीं से कर्मयोग का आरम्भ हो जाता है। काम करना, लेकिन लिप्त नहीं होना। एक साधु ने कहा- "देखो दाखो, ताको मत।" ऐसा देखो कि एक पर ही दृष्टि रहे, एक ही को निरखा जाय। इसके बिना आगे बढ़ने का काम हो ही नहीं सकता है। उप- निषद् में आया है-

"बीजाक्षरं परं विन्दु,  नादं तस्यो परिस्थितम् ।
 सशब्दं चाक्षरे क्षौणे,  निशब्दं  परमं  पदम् ।।"

     अर्थात् परम विन्दु ही बीजाक्षर है, उसके ऊपर नाद है। नाद जब अक्षर (अनाश ब्रह्म) में लय हो जाता है तो निःशब्द परम पद है।

     यह ध्यान परम ध्यान है। देखना एक पर अर्थात् एकविन्दु ही हो और सुनना भी एक ही सारशब्द हो । अनेक शब्द नहीं, एक ही एक शब्द का सुनना हो। जहाँ पर शब्द सुनना होता है, यदि एक ही एक शब्द रह जाय तो वह सारशब्द होगा। बाहर में कोलाहल है, अन्दर में भी कोलाहल है। सब शब्द छूट जाय, एक ही एक रह जाय, तब जो मिलेगा, वही एक ईश्वर होगा। उसका कहीं आरम्भ नहीं है, न कहीं अन्त है और न मध्य है। इसी को सन्त सुन्दर दास जी ने कहा है- "आदि न अन्त सुमध्य कहाँ है।"  (महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 434) }



( भजन में होत आनंद आनंद । 
बरसत विसद अमी के वादर , भीजत है कोइ संत ।। 
अगर बास जहं तत  की  नदिया,  मानो  धारा  गंग । 
करि असनान मगन होइ बैठी , चढ़त  शब्द कै रंग ।। 
रोम रोम जाके अमृत भीना ,   पारस  परसत  अंग । 
शब्द गह्यो जिव संसय नाही, साहिब भयो तेरे संग ।। 
सोइ सार रच्यो मेरे साहिब,  जहँ   नहिं  माया  अहं । 
कहै कबीर सुनो  भाइ  साधो ,  जपो   सोहं   सोहं ।।
ध्यान मुद्रा में सद्गुरु महर्षि मेंही परमहंस जी महाराज
 सदगुरुदेव

     8. अगर=चन्दन । शब्द का रंग चढ़े तो क्या होगा? साहिब भये तेरे संग । संग में हई है , जबसे हम नहीं जानते , तबसे ही । किंतु शब्द को पकड़ लेने से प्रत्यक्ष हो जाएगा । बिना शब्द गहे प्रत्यक्षता हो जाएगा। बिना शब्द गहे प्रत्यक्षता हो जायगी? नहीं होगी । ध्यानविन्दूपनिषद् में है--

     बीजाक्षरं परं विन्दुं नादं तस्योपरि स्थितम् । 
     सशब्दं चाक्षरे क्षीणे  नि:शब्दं परमं पदम् ।।

    अक्षर का बीज विन्दु है । पेन्सिल या कलम रखो , पहले विन्दु ही बनता है । लकीर बनाते हैं , वह विन्दुमय है । आपलोगों ने जो ध्यानविन्दूपनिषद् के पाठ में सुना , वही परम विन्दु है । यहाँ आपलोगों ने सुना--

 ' विन्दु ध्यान विधि , नाद ध्यान विधि , सरल सरल जग में परचारी ।' 

     विन्दु इतना छोटा होता है कि उसका विभाग नहीं हो सकता । बहुत छोटा है , इसीलिए इसे विन्दु नहीं कहकर परम विन्दु कहा । संसार में लोग चिह्न करके विन्दु मानते हैं । लेकिन उसकी परिभाषा के अनुकूल बाहर में विन्दु नहीं बना सकते । इस परम विन्दु को प्राप्त करने से शब्द मिलता है । फिर शब्द का भी जहाँ लय हो जाता है , वह ' निःशब्दं परमं पदम् ' है । अंतस्साधना करते - करते आनंद आने लगेगा । मलयागिरि का सुगंध मालूम होगा तथा शब्द का रंग चढ़ जाएगा । तब हो जाएगा - 

साहिब भयो तेरे संग । ' ( कबीर ) 

     कोई कहे शब्दातीत परम पद है और यहाँ शब्द को ही परम पद बना दिया , ऐसा क्यों ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है , गुरु नानकदेव ने कहा है -

'ना तिसु रूप बरनु नहि रेखिआ , साचे शबदि नीसाणु ।
गुरुदेव की सेवा में गुरु सेवी भगीरथ बाबा
प्रवचन के बाद गुरुदेव

     शब्द ही सही चिह्न है । देवता को प्रसन्न करने के लिए देवताओं की प्रतिमा पूजते हैं ; उसी प्रकार यह शब्द भी परमात्मा है । प्रतिमा पूजते हैं तथा उसे ठाकुरजी कहते हैं । उसी प्रकार यह शब्द भी परमात्मा है । शब्द अपने उद्गम स्थान पर पहुँचाता है । घोर अँधेरी रात में जहाँ से शब्द आता है , वहाँ चलते-चलते पहुँच जाय , असम्भव नहीं । जो कोई विन्दु को ग्रहण करेगा , वह शब्द को ग्रहण कर लेगा । जहाँ से इस शब्द का विकास हुआ है , वहाँ पहुँचा देगा । इसलिए मन बुद्धि आदि इन्द्रियों से आगे बढ़कर शब्द को पकड़ने की कोशिश करें । आँख , कान ; सब मोटी - मोटी इन्द्रियाँ हैं । इसमें सूक्ष्म रूप से जो चेतनवृत्ति है , उसके अंदर रहने के कारण सूक्ष्म इन्द्रियाँ हैं । यह वृत्ति आँख में आई तो देखने की शक्ति दृष्टि हुई । जो स्थूल में लिपट कर रहेगा तो सूक्ष्म में क्या उठ सकता है ? इन सब पदार्थों को लें तो वह विन्दुमय है । परमात्मा की कृपा , गुरु की दया हो , विन्दु पर अपने को रख सकें तो पूर्ण सिमटाव होगा । सिमटाव का फल ऊर्ध्वगति होगी । कठिन या तरल किसी पदार्थ को समेटिए ऊर्ध्वगति होगी । जहाँ मन का समेट है , स्थूल में सिमटने पर सूक्ष्म में प्रवेश होगा ।  ( महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 0 3 ,  मोकमा, दि. 24-12-1950)}


ध्यान कब करना चाहिए? 

     ( त्रैकाल संध्या अवश्य करनी चाहिए । ब्राह्ममुहूर्त में उठकर मुँह - हाथ धोकर , दिन में स्नान के बाद और फिर सायंकाल ; तीनों काल संध्या करो । यह कितने पूर्व से है ठिकाना नहीं । हमारे मुसलमान भाइयों के लिए पंचबख्ती नमाज है । बहुत मुसलमान भाई करते हैं , वे बहुत अच्छा करते हैं । जो नहीं करते हैं , वे ठीक नहीं करते हैं , पाप करते हैं । उसी तरह हमारे भारतीय वैदिक धर्मावलम्बी को भी त्रैकाल संध्या करनी चाहिए । जो नहीं करते हैं , वे ठीक नहीं करते , पाप करते हैं । अपने अंदर में परमात्मा की खोज होनी चाहिए । मन्दिरों में जो दर्शन होता है , वह अपूर्ण है इच्छा रह ही जाती है कि प्रत्यक्ष दर्शन होता । इसलिए अपने अंदर में खोजिए ।( महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 97) }


प्रारंभिक ध्यान कैसे करना चाहिए? 

     { मैं कहता आया हूँ हे गुरु, हे गुरु..... कुछ काल कहिए। पहले कुछ देर वाचिक जप कीजिए, फिर उपांशु जप कीजिए, फिर मानस जप कीजिए, फिर मानस ध्यान कीजिए, इसके बाद ध्यान (सूक्ष्म ध्यान) है। ध्यान दूर है, इसलिए अभी करने के लिए मैं नहीं कहता । ( महर्षि मेंहीं सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नंबर 499) }


पश्नोत्तर  ( गुरु महाराज के शब्दों में ) 

{ प्रश्न- शाम्भवी या वैष्णवी मुद्रा का अभ्यास कितना करना चाहिए? 

उत्तर- "देखने की शक्ति को दृष्टि कहते हैं । दृष्टि और मन एक ओर रखते हैं , तो मस्तिष्क में कुछ परिश्रम मालूम होता है । इसलिए संतों ने कहा - जबतक तुमको भार मालूम नहीं हो , तबतक करो , भार मालूम हो तो छोड़ दो । किसी गम्भीर विषय को सोचने से मस्तिष्क पर बल पड़ता है , मस्तिष्क थका - सा मालूम होता है , तब छोड़ दीजिए । "

प्रश्न-  शाम्भवी और वैष्णवी मुद्रा किसे कहते हैं? 

त्तर- "देखने के किसी विशेष ढंग को शाम्भवी और वैष्णवी मुद्रा कहते हैं ।  " 

पश्नबिंदु प्राप्त करने के बाद क्या करना चाहिए? 

उत्तर-  "प्रकाश के शब्द को पकड़ने के लिए संतों ने कहा। "

 ( महर्षि मेँहीँ सत्संग-सुधा सागर प्रवचन नं. 46, मुगेंर, दि. २८.२.१९५३  ई०



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