6.17.2023

ईश्वर 01 परमात्मा का स्वरूप, ईश्वर दर्शन का लाभ, ईश्वर से संबंधित अन्य बातें गुरुदेव और संतों के वचन में

ईश्वर /01

     प्रभु प्रेमियों ! हमारे समाज में ईश्वर से संबंधित बहुत तरह की भ्रांतियां प्रचलित है। जैसे कि कोई ईश्वर को भगवान कहते हैं।, कोई उसी को गॉड, तो कोई अल्लाह, कोई वाहेगुरु और कोई अन्य नामों से उस ईश्वर को पुकारते हैं ।  इसी तरह से उनकी भक्ति करने के विषय में भी बहुत तरह की भ्रांतियां फैली हुई है ।  इन भ्रांतियों में दरअसल हमारे कल्याणकारक कौन-सा ईश्वर,  कौन-सा विचार सर्वोत्तम है, जिसका हम अनुसरण करके परम प्रभु परमात्मा को प्राप्त करके मनुष्य जीवन के सभी दुखों से छुटकारा पा सकते हैं ।  सत्संग ध्यान के क्रमानुसार परिचय में हमलोग इन्हीं सब बातों पर क्रम-क्रम से चर्चा करेंगे। 

ईश्वर से संबंधित चर्चा करते गुरुदेव महर्षि मेंहीं

ईश्वर से संबंधित महत्वपूर्ण बातें

     प्रभु प्रेमियों ! ईश्वर से संबंधित शीर्षक में हमलोग कई बातों को सीखने वाले है। जैसे कि- 

1. परमात्मा या ईश्वर का स्वरूप कैसा है? 
2. ईश्वर-भक्ति क्यों करनी चाहिए? 
3. ईश्वर-दर्शन से क्या लाभ है? आदि

     ईश्वर से संबंधित अन्य जो भी बातें गुरुदेव और संतों के वचनों से हमारी जानकारी में है। उन सभी बातों को आपसे साझा करने के लिए यह ईश्वर से संबंधित अनेक पोस्ट किया जायेगा। 


ईश्वर-स्वरूप

     प्रभु प्रेमियों !  महर्षि मेंहीं सत्संग- सुधा-सागर के प्रवचन नंबर एक में है-  "संतमत में ईश्वर की स्थिति का बहुत पहले के साथ विश्वास है; परन्तु उस ईश्वर को इन्द्रियों से जानने योग्य नहीं बताया गया है। वह स्वरूपतः अनादि और अनंत है, जैसा कि संत सुन्दरदासजी ने कहा है- 

व्योम को व्योम अनंत अखण्डित, 
                                आदि न आत्मा सुमध्य में स्थित है।

       2.  किसी अनादि और अनंत द्रव्यों की मणि-बुद्धि-संगति होती है। मूल आदि तत्त्व कुछबेशक है । वह मूल और आदि तत्त्व परिमित हो ससीम हो , तो सहज ही यह प्रश्न होगा कि उसके पार में क्या है ? ससीम को आदि तत्त्व लगता है और मौलिक को आदि तत्त्व नहीं महसूस होता है। 

व्यापक व्याप्य अखण्ड अनंता । अखिल अमोघ सक्ति भगवंत ॥ अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सब दरसी अनवय अजीता । निर्मल निराकार निर्मोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा॥ प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। ब्रह्म निरीह विरज अविनाशी॥

     उत्कृष्ट चौपायों में मूल आदि तत्त्व का वर्णन गोस्वामी तुलसीदासजी ने किया है। संतों ने उसे ही परमात्मा माना है । गुरु नानकदेवजी ने कहा है-

 अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न कर्मा। जाति अजाति अजोनी संभउ, नातिसुभाउन भरमा ॥ साचे सचिआर विथुकुरवाणु , ना तिसु रूप बरनु नहि रोसिआ । साचे सबदि नीसाणु ॥ आदि।

      संतों का यह विचार है कि जो सबसे महान है, जो सीमाबद्ध नहीं है, उससे कोई विशेष व्यापक हो, संभावना नहीं है। जो व्यापक-व्याप्य को भर कर उसे इतना विशेष है कि जिसका परवार नहीं है, वही सबसे विशेष व्यापक और सबसे सूक्ष्म होगा। यहाँ सूक्ष्म का अर्थ 'छोटा टुकड़ा' नहीं है, बल्कि 'आकाशवत् सूक्ष्म' है। जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म है , उसे मूल या सूक्ष्म निरीक्षणों से जानना ।

      3 । वह ईश्वर आत्मगम्य है । केवल चेतन - आत्मा से जाना जाता है। शरीर के भीतर आप चेतन - आत्मा हैं और उस आत्मा से जो प्राप्त होता है, उसी को परमात्मा कहते हैं । रूप , रस , गन्ध , स्पर्श और शब्द ; इन पाँचों में से प्रत्येक को ग्रहण करने के लिए जो - जो इन्द्रिय हैं अर्थात् आँख से रूप, जिभ्या से रस, नासिका से गन्ध, त्वचा से स्पर्श और कान से शब्द; इन इंद्रियों के अतिरिक्त और किसी से ये पांच विषय ग्रहण नहीं किए जाते हैं। इसी प्रकार जो चेतन - आत्मा के अतिरिक्त और किसी से नहीं सीखा, वही परमात्मा है। 

     4. जो विशेष विशेष व्यापक होता है, वह सूक्ष्म ही होता है। परमात्मा अपनी सर्वव्यापकता के कारण सबसे विशेष सूक्ष्म है। स्थूल यंत्र से सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण नहीं हो सकता। एक बहुत छोटी घड़ी के महीन कील - काँटों को बढ़ई और लोहार की सँड़सी, पेचकश आदि - पते यंत्रों से घड़ी में बिठाने और निकालने के काम नहीं हो उसके लिए यंत्र भी महीन ही होते हैं ।

     5.  हमारी सभी और बाहरी इंद्रियाँ - आँख , कर्ण , नासिका , जिह्वा , त्वचा , मुख , पैर , लिंग और लिंग - बाहर की इंद्रियाँ तथा मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार - अन्तर की इंद्रियाँ; सब-की-सब उस पूर्वव्यापी की सूक्ष्म नहीं हैं जो परमात्म-संदर्भ को ग्रहण कर सकते हैं। ये तो परमात्मा की सूक्ष्मता के सम्मुख स्थूल हैं। भला ये उसे कैसे ग्रहण कर सकते हैं। 

ओ३म् संयोजत उरुगायस्य जूतिं वृथाक्रीडन्तं मिमितेनगावः । परिणसं   कृणुते   तिग्म   श्रृंगो  दिवा  हरिर्ददृशे    नक्तमृज: ॥ 
                                             ( सा 0 , अ 08 , मन 03 )

      इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! हाथ , पैर का लिंग , लिंग , रसना , कान , त्वचा , आंख , नाक और मन - बुद्धि आदि इंद्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना झूठ ही एक खेल है ; क्योंकि वह नहीं जा सकता। वह तो इन्द्रियातीत है।


यन्मनसा  न  मनुते  येनाहुर्मनो  मतम् । 
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ॥
                                   - कनोपनिषद् (खण्ड 1 , श्लोक 5 )

    अर्थात् जो मन से मनन नहीं किया जाता, परन्तु जिस मन से मन किया जाता है, उसी को तू ब्रह्म जान। जिस इस ( देश कालाविच्छिन्न वस्तु ) की लोक पूजा करते हैं , वह ब्रह्म नहीं है ।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधाया न बहुना श्रुतेन । 
यमेवैषवृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुतेतर्नूस्वम् ॥                              --कठोपनिषद् अ 01 , वल्ली 2 , श्लोक 23 )

     अर्थात् यह आत्मा वेदाध्यन - प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा - शक्ति या अधिक श्रावण से ही प्राप्त हो सकता है , यह ( साधक ) जिस ( आत्मा ) का वरण करता है , उस आत्मा से ही यह प्राप्त किया जा सकता है । उसका प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को व्यक्त करता है।

      6.  अब यह स्पष्ट तरह से जना देता है कि अनादि आदि परम तत्व परमात्मा केवल चैतन्य आत्मा से ही ग्रहण होता है, दस्तावेज़ जाने योग्य है जब तक शरीर और इंद्रियों के सहित चैतन्य आत्मा रहेगा, तबतक परमात्मा को नहीं पहचानता। आँख पर पट्टी बँधी हो, तो आँख में देखने की शक्ति रहने पर भी बाहरी दृश्य नहीं देखा जाता है और आँख पर रंगीन चश्मा रहने पर बाहर का यथार्थ रंग नहीं दिखता है, अलग-अलग रंग के समान रंग बाहर में देखने में आता है है। आँख पर से पट्टी और चश्मा उठे दो, बाहर के यथार्थ रंग देखने में आते हैं। शरीर और इंद्रियों के आक्षेप से छूटते या यों कहें कि चैतन्य आत्मा पर से शरीर और इंद्रियों की पट्टी और उठाते ही चैतन्य आत्मा को परमात्म -रूप की पहचान हो जाएगी। शरीर, इन्द्रिय और मूल, सूक्ष्म आदि सूक्ष्म सब तरकीबों के ऊपर जाने पर, जो इस पिण्ड में बच जाता है, वहीचेतन - आत्मा है और इन्हें जो पहचाना जाता है, वही अनादि आदि तत्त्व परमात्मा है । 

       7.  मैं तो इसअनादि आदि परमतत्त्व को परमात्मा कहता हूंऔर कहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी - अपनी रुचि के अनुसार इस मूल अनादि परमतत्त्व को जिस नाम से पुकारना चाहे , कहिए । परन्तु यथार्थ में यह अवर्णनीय अनिर्वचनीय है। 

रामस्वरूप   तुम्हार  वचन  अगोचर  बुद्धि  पर । 
अविगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ॥
                                         - गोस्वामी तुलसीदासजी।

अविगत गति कछु कहत न आवै। 
ज्यो  गूंगही  मीठे फल  को रस, अंतरगत  ही भावै ॥ 
परम  स्वाद सबही जु निरन्तर अमित तोष प्रदर्शनवै ॥ 
मन  बानी  को अगम अगोचर,   सो  जानै   जो  पावै॥ 
                                                 -भक्त सूरदासजी

नैना बैन अगोचरी , श्रावणा करणी सार । 
बोलन के सुख करने, कहिये सरजनहार ॥ 
आदि अन्त ताहि नहिंं मधे । कथ्यौ न जाई आहि अकथये ॥ 
अपरंपारु उपजै नहिं विनसै । जुगति न जानिय कथये कैसे ॥
जस कथये तस होत नहिं ,  जस   है  तैसा  सोइ । 
कहत सुनत   सुख   उपजै,   अरु  परमारथ होइ ।। 
                                                       - -कबीर साहब"

ईश्वर तक जाने का क्या मार्ग है? 

{     14. अभी आपलोग ईश्वर के विषय में सुन रहे हैं । परमात्मा , ईश्वर है । उसकी स्थिति को हमलोग मानते हैं । संत मानते हैं , इसलिए हम मानते हैं , ऐसा नहीं । हमें तो विश्वास है । घर - घर में बचपन से राम - राम , वाह गुरु आदि कहते आए हैं । यह श्रद्धा नहीं मिट सकती । राम - राम तो बच्चे में कहते थे , किंतु पदार्थ रूप में परमात्मा कैसा है , क्या है , यह सत्संग से जाना जाता है । कोई कहते हैं कि ईश्वर नहीं है तो आश्चर्य मालूम होता है । वेद - पुराण संत की वाणी में एक राय यह है कि ईश्वर को जानकर जानना और पहचानकर जानना । ईश्वर इन्द्रिय से जानने योग्य नहीं है । हाथ - पैर से नहीं जानेंगे , स्वाद , गंध आदि मालूम ही नहीं होगा । किंतु वह बिन पावन की राह है , बिन बस्ती का देश । 

बस्ती न शुन्यं  शुन्यं   न  बस्ती ,   अगम    अगोचर    ऐसा । 
गगन शिखर महिं बालक बोलहिं , वाका नाँव धरहुगे कैसा ।। 

    बस्ती या शून्य , देश या काल , इन्द्रिय - ज्ञान में है । जो इन्द्रिय - ज्ञान से ऊपर है , उसके लिए मालूम होता है , जैसे हई नहीं है । वेद में आया है कि आत्मा से आत्मा जाना जाता है । आँख , कान दोनों इन्द्रियाँ हैं , किंतु एक का ज्ञान दूसरे के द्वारा नहीं हो सकता । उसी प्रकार मन - बुद्धि के द्वारा उस परमात्मा को नहीं जान सकते । अपने से ही जानेंगे अपने को इन्द्रिय से रहित करके । गोरख , नानक , कबीर ; सबकी वाणी में यही कहा गया है कि इन्द्रियों से नहीं , आत्मा से जानेंगे । तभी अन्तर साधना सफल है । 



ईश्वर के स्वरूप को क्यों जानना चाहिये--

 {   2. पहली बात यह है कि ईश्वर - स्वरूप को जानें कि वह कैसा है ? प्राप्तव्य वस्तु की जानकारी होनी चाहिए । जो आप इन्द्रिय से जान सकें , वह परमात्मा नहीं । तुलसीकृत रामायण में ईश्वर - स्वरूप जानने के लिए लक्ष्मण से रामजी कहते हैं- 

गो गोचर जहँ लगिमन जाई । सो सब माया जानहु भाई ।।    

     3. इन्द्रियों को जो प्रत्यक्ष हो और जहाँ तक मन जाय , सब माया है । ईश्वर स्वरूप इससे बहुत आगे है । इन्द्रियगम्य जो कुछ भी है , वह मायिक पदार्थ है । ईश्वर आत्मगम्य है । जिसे केवल आत्मा से ही पहचान सकते हैं , वह ईश्वर है । जो इन्द्रियों से जानते हैं , वह ईश्वर नहीं है । 

     7न्द्रियों का संग छोड़कर जो आप जानें , वही परमात्मा ईश्वर है । उसकी भक्ति करें , उसका भक्त बनें , उसको प्राप्त करें फिर सुख की कमी क्या ? यहाँ का सुख थोड़ा तथा अंग - अंग में दुःख है । रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द का सुख प्राप्त करने के लिए कमाई और परिश्रम कीजिए , कितना करना पड़ता है ? कितना दुःख है ! फिर भी एक ही दिन की कमाई से काम नहीं चलता है । संतोष नहीं होता । परमात्मा को  जिन लोगों ने प्राप्त किया , उन्होंने कहा- यही सुख है । जबतक प्राप्त नहीं हो , परिश्रम करें । भक्ति करने के अभ्यास में आनंद मिलता है ।

     8. "देवता को प्रसन्न करने के लिए देवताओं की प्रतिमा पूजते हैं ; उसी प्रकार यह शब्द भी परमात्मा है । प्रतिमा पूजते हैं तथा उसे ठाकुरजी कहते हैं । उसी प्रकार यह शब्द भी परमात्मा है । शब्द अपने उद्गम स्थान पर पहुँचाता है । " (महर्षि मेंहीं सत्संग- सुधा-सागर प्रवचन नंबर 3 से)}

ईश्वर को कहाँ खोजें? 

     { लोग ग्रंथों को पढ़ - पढ़कर व्याख्यानों को सुन - सुनकर ईश्वर का ज्ञान समझते हैं । किंतु यह ज्ञान पूर्ण नहीं है । पूर्ण ज्ञान प्रत्यक्षता में है । गोस्वामी तुलसीदासजी अपने लिए कहते हैं 

ज्यों सर विमल वारि परि पूरन , ऊपर कछु सेंवार तृन छायो । जारत हियो ताहि तजिहौं सठ, चाहत यहि विधि तृषा बुझायो ।। 

सूरदासजी महाराज भी यही कहते हैं--

अपुन पो आपुन ही में पायो । 
शब्दहिं शब्द भयो उजियारो ,  सतगुरु भेद बतायो ।। 
ज्यों  कुरंग  नाभि  कस्तूरी ,  ढूँढ़त  फिरत  भुलायो । 
फिर चेत्यो जव चेतन वै करि , आपुन ही तनु छायो ॥ 
राज कुँआर कण्ठे मणि भूषण,भ्रम भयो कह्यो गँवायो । 
दियो बताइ और सत जन तब, तनु को पाप नशायो ॥ 
सपने माहिं नारिको भ्रम भयो ,  बालक कहुँ हिरायो । 
जागि लख्यो ज्यों को त्यों ही है, ना कहूँ गयो न आयो 
सूरदास समुझै की यह गति,  मन ही  मन  मुसुकायो । 
कहि न जाय या सुख की महिमा, ज्यों गूंगो गुर खायो।। 

     गोस्वामी तुलसीदासजी की तरह सूरदासजी भी मृगा की उपमा देते हैं । फिर ये एक माई की उपमा देते हैं कि जैसे कोई माई अपने बच्चे को साथ में लेकर सो गई और स्वप्न में देखती है कि बच्चा खो गया । किंतु जगने पर उसे अपने नजदीक ही मिलता है । उसी तरह माया में सोया हुआ प्राणी को ईश्वर खोया हुआ मालूम होता है , किंतु ईश्वर उसके नजदीक में ही है । पलटू साहब भी कहते हैं--

बैरागिन भूली आप में जल में खोजै राम ॥ 
जल में खोजै राम जाय के तीरथ छाने । 
भरमै चारिउ खूट नहीं सुधि अपनी आनै ॥ 
फूल माहिं ज्यों बास काठ में अगिन छिपानी । 
खोदे बिनु नहिं मिलै अहै धरती में पानी ।। 
दूध मॅहै घृत रहै छिपी मिंहदी में लाली । 
ऐसे पूरन ब्रह्म कहूँ तिल भरि नहिं खाली ॥ 
पलटू सत्संग बीच में करि ले अपना काम । 
बैरागिन भूली आप में जल में खोजै राम 

ईश्वर क्या है?

{ कोई पूछे कि रूप क्या है ? आप झट से कह दो,  जो तुम आँख से देखते हो। इसी तरह ईश्वर क्या है ? जो तुम अपनी, आत्मा से पहचान सको, वही ईश्वर, है। जो इस बात को नहीं समझते, वे ही भटकते रहते हैं। संसार में बहुत से रंग-रूप हैं। संसार के विषयों में फंसे हुए मन को मालूम नहीं कि संसार के रंग-रूप के अति- रिक्त और कुछ है। संसार के विषयों, रंग-रूपों के अतिरिक्त आप स्वयं हो, इसको समझो। यह बतलाने की आवश्यकता नहीं रही कि आप शरीर के अंग प्रत्यंगों में कुछ नहीं हो। तुम अपने को नहीं पहचानते, शरीर को पहचानते हो, विषयों को पहचानते हो। अपने को पहचानने की कोशिश करो।   (महर्षि मेंहीं सत्संग- सुधा-सागर प्रवचन नंबर S495 से)}

ईश्वर भक्ति से सभी दु:खों का नाश होगा यह विश्वास कैसे करें?

{ईश्वर का ज्ञान बहुत गहन है। समझने में गहन, विचार में गहन, प्राप्ति कैसे हो-यह गहन से भी गहन है। परन्तु यदि ईश्वर-दर्शन नहीं प्राप्त करो, तो संसार में रहने का क्लेश कभी नहीं छूटेगा। जैसे देश की सुरक्षा के वास्ते यदि अपने शरीर तक की भी परवाह छोड़कर देश की सुरक्षा में बाधा पहुँचानेवाले का सामना नहीं करते, तो देश पराधीन रहकर दुःख भोगता रहता है। इसलिए देश की सुरक्षा रखनेवाले अपनी देह की परवाह छोड़कर लड़ते हैं। इसी तरह ईश्वर-दर्शन करने में जितनी कठिनाइयां हैं उनको नहीं झेलो, तो संसार में आने का दुःख नहीं छूटेगा। उसके बाद का जितना जीवन होगा, उसमें दुःखी रहोगे। सुनने में जो कठिनाई मालूम होती है, वह करते-करते हल्की हो जाती है। धीरे-धीरे उसी में मन बैठता है और वह सुगम हो जाता है। मेरी इस बात को तब विश्वास करोगे, जब तुम स्वयं करोगे। यदि तुम मेरे लिए यह समझो कि रोचक बात कहकर ईश्वर प्राप्ति के कर्म में लगाना चाहते हैं, तो में कहूँगा कि आपको अनुभूति इसकी नहीं है- जानकारी नहीं है। मैं क्या कहूँ? यदि आप मुझको इसमें कुछ भी सच्चा मानो, मेरी उम्र को समझो, तो मैंने इतनी उम्र तक क्या किया ? या तो विद्या लाभ किया या यही काम करता रहा। इतने में मुझको कुछ भी अनुभूति नहीं हुई, यह विश्वास करने योग्य नहीं है। यदि मेरी तहकीकात करना चाहो, तो मिल सकती है। विद्याभ्यास, सत्संग और उपासना- जो-जो कर्म इसके लिए अपेक्षित हैं, उसी में मैंने अपने को लगाया है। मैं अपने साधन के बल से कहता हूँ-बिल्कुल ठीक है।   (महर्षि मेंहीं सत्संग- सुधा-सागर प्रवचन नंबर S495 से)}


ईश्वर प्राप्ति के रास्ते पर कौन चलता है? 


{ईश्वर की ओर चलने से उनका तात्पर्य है । यद्यपि ईश्वर सर्वव्यापी हैं , परंतु उसको पहचान नहीं सकते । इसलिए उनकी पहचान और मिलन से जो प्राप्त होना चाहिए नहीं होता है । संसार को पहचानते हैं, उससे जो प्राप्त होता है ;  उससे संतुष्टि नहीं होती । परमात्मा को पहचानने चलो । किंतु उसकी पहचान के लिए चलने में आपका शरीर नहीं जाएगा । वह रास्ता शरीर के चलने का नहीं है , जिसके लिए कबीर साहब ने कहा है -

बिन पावन की राह  है ,  बिन बस्ती का देश । 
बिना पिण्ड का पुरुष है , कहै कबीर सन्देश ॥




      प्रभु प्रेमियों ! सत्संग ध्यान के क्रमानुसार परिचय के अन्तर्गत  ईश्वर 01 के इस पोस्ट का पाठ करके आपलोगों ने जाना कि ईश्वर क्या है? ईश्वर भक्ति क्यों करें? भगवान की भक्ति करना क्यों जरूरी है? ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति क्या है? जीवन में ईश्वर भक्ति का क्या महत्व?  इत्यादि बातें। इतनी जानकारी के बाद भी अगर आपके मन में किसी प्रकार का संका या कोई प्रश्न है, तो हमें कमेंट करें। इस प्रवचन के बारे में अपने इष्ट मित्रों को भी बता दें, जिससे वे भी लाभ उठा सकें। सत्संग ध्यान ब्लॉग का सदस्य बने इससे आपको आने वाले प्रवचन या पोस्ट की सूचना नि:शुल्क मिलती रहेगी।



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