ईश्वर 01 परमात्मा का स्वरूप, ईश्वर दर्शन का लाभ, ईश्वर से संबंधित अन्य बातें गुरुदेव और संतों के वचन में
ईश्वर /01
ईश्वर से संबंधित महत्वपूर्ण बातें
1. परमात्मा या ईश्वर का स्वरूप कैसा है?
2. ईश्वर-भक्ति क्यों करनी चाहिए?
3. ईश्वर-दर्शन से क्या लाभ है? आदि
ईश्वर-स्वरूप
2. किसी अनादि और अनंत द्रव्यों की मणि-बुद्धि-संगति होती है। मूल आदि तत्त्व कुछबेशक है । वह मूल और आदि तत्त्व परिमित हो ससीम हो , तो सहज ही यह प्रश्न होगा कि उसके पार में क्या है ? ससीम को आदि तत्त्व लगता है और मौलिक को आदि तत्त्व नहीं महसूस होता है।
व्यापक व्याप्य अखण्ड अनंता । अखिल अमोघ सक्ति भगवंत ॥ अगुन अदभ्र गिरा गोतीता । सब दरसी अनवय अजीता । निर्मल निराकार निर्मोहा। नित्य निरंजन सुख संदोहा॥ प्रकृति पार प्रभु सब उरवासी। ब्रह्म निरीह विरज अविनाशी॥
अलख अपार अगम अगोचरि, ना तिसु काल न कर्मा। जाति अजाति अजोनी संभउ, नातिसुभाउन भरमा ॥ साचे सचिआर विथुकुरवाणु , ना तिसु रूप बरनु नहि रोसिआ । साचे सबदि नीसाणु ॥ आदि।
3 । वह ईश्वर आत्मगम्य है । केवल चेतन - आत्मा से जाना जाता है। शरीर के भीतर आप चेतन - आत्मा हैं और उस आत्मा से जो प्राप्त होता है, उसी को परमात्मा कहते हैं । रूप , रस , गन्ध , स्पर्श और शब्द ; इन पाँचों में से प्रत्येक को ग्रहण करने के लिए जो - जो इन्द्रिय हैं अर्थात् आँख से रूप, जिभ्या से रस, नासिका से गन्ध, त्वचा से स्पर्श और कान से शब्द; इन इंद्रियों के अतिरिक्त और किसी से ये पांच विषय ग्रहण नहीं किए जाते हैं। इसी प्रकार जो चेतन - आत्मा के अतिरिक्त और किसी से नहीं सीखा, वही परमात्मा है।
5. हमारी सभी और बाहरी इंद्रियाँ - आँख , कर्ण , नासिका , जिह्वा , त्वचा , मुख , पैर , लिंग और लिंग - बाहर की इंद्रियाँ तथा मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार - अन्तर की इंद्रियाँ; सब-की-सब उस पूर्वव्यापी की सूक्ष्म नहीं हैं जो परमात्म-संदर्भ को ग्रहण कर सकते हैं। ये तो परमात्मा की सूक्ष्मता के सम्मुख स्थूल हैं। भला ये उसे कैसे ग्रहण कर सकते हैं।
इस मंत्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! हाथ , पैर का लिंग , लिंग , रसना , कान , त्वचा , आंख , नाक और मन - बुद्धि आदि इंद्रियों के द्वारा ईश्वर को प्रत्यक्ष करने की चेष्टा करना झूठ ही एक खेल है ; क्योंकि वह नहीं जा सकता। वह तो इन्द्रियातीत है।
अर्थात् यह आत्मा वेदाध्यन - प्राप्त होने योग्य नहीं है और न धारणा - शक्ति या अधिक श्रावण से ही प्राप्त हो सकता है , यह ( साधक ) जिस ( आत्मा ) का वरण करता है , उस आत्मा से ही यह प्राप्त किया जा सकता है । उसका प्रति यह आत्मा अपने स्वरूप को व्यक्त करता है।
6. अब यह स्पष्ट तरह से जना देता है कि अनादि आदि परम तत्व परमात्मा केवल चैतन्य आत्मा से ही ग्रहण होता है, दस्तावेज़ जाने योग्य है जब तक शरीर और इंद्रियों के सहित चैतन्य आत्मा रहेगा, तबतक परमात्मा को नहीं पहचानता। आँख पर पट्टी बँधी हो, तो आँख में देखने की शक्ति रहने पर भी बाहरी दृश्य नहीं देखा जाता है और आँख पर रंगीन चश्मा रहने पर बाहर का यथार्थ रंग नहीं दिखता है, अलग-अलग रंग के समान रंग बाहर में देखने में आता है है। आँख पर से पट्टी और चश्मा उठे दो, बाहर के यथार्थ रंग देखने में आते हैं। शरीर और इंद्रियों के आक्षेप से छूटते या यों कहें कि चैतन्य आत्मा पर से शरीर और इंद्रियों की पट्टी और उठाते ही चैतन्य आत्मा को परमात्म -रूप की पहचान हो जाएगी। शरीर, इन्द्रिय और मूल, सूक्ष्म आदि सूक्ष्म सब तरकीबों के ऊपर जाने पर, जो इस पिण्ड में बच जाता है, वहीचेतन - आत्मा है और इन्हें जो पहचाना जाता है, वही अनादि आदि तत्त्व परमात्मा है ।
7. मैं तो इसअनादि आदि परमतत्त्व को परमात्मा कहता हूंऔर कहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी - अपनी रुचि के अनुसार इस मूल अनादि परमतत्त्व को जिस नाम से पुकारना चाहे , कहिए । परन्तु यथार्थ में यह अवर्णनीय अनिर्वचनीय है।
अपरंपारु उपजै नहिं विनसै । जुगति न जानिय कथये कैसे ॥
{ 14. अभी आपलोग ईश्वर के विषय में सुन रहे हैं । परमात्मा , ईश्वर है । उसकी स्थिति को हमलोग मानते हैं । संत मानते हैं , इसलिए हम मानते हैं , ऐसा नहीं । हमें तो विश्वास है । घर - घर में बचपन से राम - राम , वाह गुरु आदि कहते आए हैं । यह श्रद्धा नहीं मिट सकती । राम - राम तो बच्चे में कहते थे , किंतु पदार्थ रूप में परमात्मा कैसा है , क्या है , यह सत्संग से जाना जाता है । कोई कहते हैं कि ईश्वर नहीं है तो आश्चर्य मालूम होता है । वेद - पुराण संत की वाणी में एक राय यह है कि ईश्वर को जानकर जानना और पहचानकर जानना । ईश्वर इन्द्रिय से जानने योग्य नहीं है । हाथ - पैर से नहीं जानेंगे , स्वाद , गंध आदि मालूम ही नहीं होगा । किंतु वह बिन पावन की राह है , बिन बस्ती का देश ।
बस्ती या शून्य , देश या काल , इन्द्रिय - ज्ञान में है । जो इन्द्रिय - ज्ञान से ऊपर है , उसके लिए मालूम होता है , जैसे हई नहीं है । वेद में आया है कि आत्मा से आत्मा जाना जाता है । आँख , कान दोनों इन्द्रियाँ हैं , किंतु एक का ज्ञान दूसरे के द्वारा नहीं हो सकता । उसी प्रकार मन - बुद्धि के द्वारा उस परमात्मा को नहीं जान सकते । अपने से ही जानेंगे अपने को इन्द्रिय से रहित करके । गोरख , नानक , कबीर ; सबकी वाणी में यही कहा गया है कि इन्द्रियों से नहीं , आत्मा से जानेंगे । तभी अन्तर साधना सफल है ।
ईश्वर के स्वरूप को क्यों जानना चाहिये--
(महर्षि मेंहीं सत्संग- सुधा-सागर प्रवचन नंबर 3 से)}
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